18 Dec 2011

मैं तो यादों के चरागों को जलाने में रहा

मैं तो यादों के चरागों को जलाने में रहा  
दिल कि दहलीज़ को अश्कों से सजाने मे रहा  

मुड़ गए वो तो सिक्को की खनक सुनकर 
मैं गरीबी की लकीरों को मिटाने में रहा

3 Dec 2011

तो क्या बात हो

किताबों के पन्ने पलट कर सोचते हैं,
यूँ ही पलट जाये जिंदगी तो क्या बात हो |
तमन्ना जो पूरी हो ख्वावों में,
हकीक़त बन जाये तो क्या बात हो |

कुछ लोग मतलब के लिए ढूंढते हैं मुझे,
बिन मतलब कोई आये तो क्या बात हो |
क़तल करके तो सब ले जायेंगे दिल मेरा,
कोई बातों से ले जाये तो क्या बात हो |
जो शरीफों की शराफत में  बात न हो,
एक शराबी कह जाये तो क्या बात हो |
जिंदा रहने तक तो ख़ुशी दूँगा सबको,
किसी को मेरी मौत से ख़ुशी मिल जाये तो क्या बात हो

2 Dec 2011

भीग गया पैराहन

भीग गया पैराहन तमाम, दोस्तों के आंसू पोंछने में!
क्यूँ कोई कन्धा हमें रोने के लिए नसीब ना हुआ?
नज़दीक तो आये कई हमसफ़र ज़िंदगी में,
किस्मत है अपनी ऐसी के कोई 'करीब' ना हुआ!

उसने कहा सुन

उसने कहा सुन
अहद निभाने की ख़ातिर मत आना
अहद निभानेवाले अक्सर मजबूरी या
महजूरी की थकन से लौटा करते हैं
तुम जाओ और दरिया-दरिया प्यास बुझाओ
जिन आँखों में डूबो
जिस दिल में भी उतरो
मेरी तलब आवाज़ न देगी
लेकिन जब मेरी चाहत और मेरी ख़्वाहिश की लौ
इतनी तेज़ और इतनी ऊँची हो जाये
जब दिल रो दे
तब लौट आना

9 Oct 2011

ज़मीन तेरी ख़ुदा मोतियों से नम कर दे

सँवार नोक पलक अबरूओं में ख़म कर दे
गिरे पड़े हुए लफ्ज़ों को मोहतरम कर दे

ग़ुरूर उस पे बहुत सजता है मगर कह दो
इसी में उसका भला है ग़ुरूर कम कर दे

यहाँ लिबास, की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे

चमकने वाली है तहरीर मेरी क़िस्मत की
कोई चिराग़ की लौ को ज़रा सा कम कर दे

किसी ने चूम के आँखों को ये दुआ दी थी
ज़मीन तेरी ख़ुदा मोतियों से नम कर दे

बशीर बद्र

फिर एक नयी चिता जला रहा हू

फिर एक नयी चिता जला रहा हू

जिस्म सीली लकड़ी जैसे सुलग रहा है
अपनी जली रूह की राख उड़ा कर
रुख हवाओ का दिखा रहा हू

फिर एक नयी चिता जला रहा हू



आज कुछ खुवाब बोए है कागज़ पर
कोशिश है नज्मो को बा - तरतीब करने की
किये जा रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू


कुछ रह गया जो साथ न गया तुम्हारे
दिल की दराजों को फिर से खंगाल कर
आज वोह सामान निकाल रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू



कुछ लम्हे टंगे है मेरे कमरे की दीवार पर
वक़्त की धूल सी जम गई है उन पर
उन्हे उतार रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू



थोड़ी सी खताए रखी है अलमारी के ऊपर
सजाए पता नहीं कब तक आयेगी
एक ज़माने से इंतजार कर रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू

आदते भी अजीब होती है

आदते भी अजीब होती है

तुम्हारी आदत
चूडिया पहनना
फिर बिना वज़ह उन्हे तोड़ देना
मेरी आदत यह कहना
चूडिया पहनती क्यों हो
अगर तोडनी ही है तो
आदते भी अजीब होती है....
............

समंदर किनारे रेत पर
कभी कभी बैठ जाता हु

सूरज समंदर के उस पर डूबता है
में इस पर तुम्हारे ख्यालो में डूब जाता हु
फर्क सिर्फ इतना है की तुम साथ नहीं होती
आदते भी अजीब होती है....
.............

ऑफिस से निकलता हु किसे काम के लिए
मेरे पैर मुझे अपने आप ही
तुम्हारे गली में ला खड़ा कर देते है
आदते भी अजीब होती है....
.............

मेरी गली में वोह खट्टे बेर वाला
अब भी आ जाता है
में फ़क़त उसे अब भी आवाज़ दे देता हु
पर बेर तो में खाता ही नहीं
आदते भी अजीब होती है....
.............

आज फिर होली का त्योंहार आया
कितनी शरारत करती थी तुम होली के दिन
सुबह सुबह मेरे गालो पर रंग लगा दिया कर देती थी तुम
जब से तुम गई हो ज़िन्दगी के सारे रंग
चले गए है तुम्हारे साथ
आदते भी अजीब होती है....
.............

जब हम पहली बार ऊटी गए थे
तुमने मेरे लिए जो एक घडी खरीदी थी
वोह आज भी अपने वक़्त पर पहरा दे रही है
मेरे दिल आज भी अपने पहरे पर मुस्तैद है
आदते भी अजीब होती है....
.............


में अब भी कार की चाबी जेब में रख कर भूल जाता हु
और पूरे घर में तलाश करता रहता हु
किसे काम से जेब में हाथ डालता हु तो वोह मिल जाती है
और फिर जोर से हंसता हु
पर अब तुम साथ नहीं होती हो
हसी गायब हो जाती है
आदते भी अजीब होती है....
.............

तुम्हारे जाने के बाद
कई दिनों तक बिस्तर ठीक नहीं किया मैंने
तुम्हारी तरफ की चादर में जो सिलवट पड़ी है
औन्धै मुह पड़ा रहता हु सारा दिन उसमे
आदते भी अजीब होती है....
.............

तुम्हारे आवाज़ की आदत सी हो गई है मुझे
जीने के लिए कुछ सांसे कम लगती है तो
टेप रेकॉर्डर में टेप की हुई तुम्हारी आवाज़
कानो में उतार लेता हु
आदते भी अजीब होती है....
.............

गिल्हेरिया अब भी आ जाती है
आँगन में नल के चबूतरे पर
मटर के दाने खाने के लिए
रोज़ खिलाता हु में उन्हे मगर
शक की निगाह से देखती है मुझे बहुत
वोह तुम्हारे हाथो का मज़ा खूब पहचानती होंगी
आदते भी अजीब होती है....
.............

इतेफाक

बरसों के बाद देखा इक शख्स दिलरुबा सा
अभी जहन में नहीं है पर नाम था भला सा

अबरू
खिंचे खिंचे से आखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहज़ा थका थका सा

अलफाज़ थे के जुगनु आवाज़ के सफ़र में

बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा


ख़्वाबों में ख़्वाब उसके यादों में याद उसकी
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा

पहले भी लोग आये कितने ही ज़िंदगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा

अगली मुहब्बत्तों ने वो नामुरादियाँ दीं
ताज़ा रफाक़तों से दिल था डरा डरा सा

कुछ ये के मुद्द्तों से हम भी नहीं थे रोये
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब का दिलासा

फिर यूं हुआ के सावन आंखो में आ बसे थे
फिर यूं हुआ के जैसे दिल भी था आबला सा

अब सच कहें तो यारों हम को खबर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत इक वाक़या ज़रा सा

तेवर थे बेरूखी के अंदाज़ दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा

हम दश्त थे के दरिया, हम ज़हर थे के अमृत
नाहक था ज़ोनुम हम को जब वो नहीं था प्यासा

हम ने भी उसको देखा कल शाम इत्तेफाक़न
अपना भी हाल है अब लोगों 'फराज़' का सा

29 Aug 2011

मैं लफ़्ज़ों में कुछ भी इज़हार नहीं करता

मैं लफ़्ज़ों में कुछ भी इज़हार नहीं करता,
इस का मतलब ये नहीं की मैं तुझे से प्यार नहीं करता..

चाहता हूँ मैं तुझे आज भी पर,
बस तेरी सोच में वक़्त अब अपना बर्बाद नहीं करता...
...
तमाशा न बन जाये कहीं मुहब्बत मेरी,
इस लिए बस अपने दर्द का इज़हार नहीं करता...

जो कुछ मिला है उसी में खुश हूँ मैं अब,
तेरे लिए खुदा से तकरार नहीं करता..

पर कोई तो बात है तेरी "फितरत" में ज़ालिम,
वरना मैं तुझे चाहने की खता बार-बार नहीं करता...

14 Aug 2011

अशआर अहमद फ़राज़

एक ख़लिश अब भी मुझे बेचैन करती है 'फ़राज़'
सुन के मेरे मरने की ख़बर वो रोया क्यों था


इतना तसलसुल तो मेरी साँसों में भी नहीं 'फ़राज़'
जिस रवानी से वो शख्स मुझे याद आता है


मुझ से हर बार नज़रें चुरा लेता है वो 'फ़राज़'
मैंने कागज़ पर भी बना के देखी हैं आँखें उसकी


तुम तक़ल्लुफ़ को भी इखलास समझते हो 'फ़राज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला
[ इखलास = सच्चाई ]


कुछ अपने मुक़द्दर में अँधेरे थे 'फ़राज़'
कुछ उसकी याद में दिए बुझा कर रोना अच्छा लगा

बहुत अजीब हैं बंदिशें मोहब्बत की 'फ़राज़'
न उसे क़ैद में रखा न हम फरार हुए


बड़ी मुश्किल से कल रात मैंने सुलाया खुद को
इन आँखों को तेरे ख़्वाब का लालच दे कर


ये वफ़ा तो उन दिनों की बात है 'फ़राज़'
जब मकां कच्चे और लोग सच्चे हुआ करते थे


लाख़ ये चाह की उस को भूल जाऊं 'फ़राज़'
हौसला अपनी जगह, बेबसी अपनी जगह


कौन तौलेगा अब हीरों में मेरे आँसूं 'फ़राज़'
वो जो दर्द का ताजिर था दूकान छोड़ गया
[ ताजिर = व्यापारी ]


मेरे सब्र की इन्तेहाँ क्या पूछते हो 'फ़राज़'
वो मेरे सामने रो रहा है किसी और के लिए


अपनी नाकामी का एक ये भी सबब है 'फ़राज़'
चीज़ जो मांगते है सबसे जुदा मांगते हैं


आप खुद ही अपनी अदाओं में ज़रा ग़ौर कीजिये
हम अर्ज़ करेंगे तो शिकायत होगी


अकेले तो हम पहले भी जी रहे थे 'फ़राज़'
क्यूँ तन्हाँ से हो गए हैं तेरे जाने के बाद


मेरे शिकवों पे उस ने हंस कर कहा 'फ़राज़'
किस ने की थी वफ़ा जो हम करते


अपने सिवा बताओ कभी कुछ मिला भी है तुम्हे
हज़ार बार ली हैं तुमने मेरे दिल की तलाशियां


जिस के पास रहता था दोस्तों का हुजूम
सुना है 'फ़राज़' कल रात एहसास-ए-तन्हाई से मर गया


सारा शहर उसके जनाज़े में था शरीक
मर गया जो शक्स तनहाईयों के खौफ़ से


'फ़राज़' ग़म भी मिलते हैं नसीब वालों को
हर एक के हाथ कहाँ ये ख़ज़ाने आते हैं


तुझको ये दुःख है कि मेरी चारागरी कैसे हो
मुझे ये गम है कि मेरे ज़ख्म भर न जाएँ कहीं
[ चारागरी = इलाज ]



इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार मैंने उससे बेवफाई की
[ मुसलसल = निरंतर,लगातार ]

वरना अब तलक यूँ था ख्वाहिशों की बारिश में
या तो टूट कर रोया या फिर गज़लसराई की

तज दिया था कल जिन को हमने तेरी चाहत में
आज उनसे मजबूरन ताज़ा आशनाई की
[ आशना = दोस्ती ]

हो चला था जब मुझे इख्तिलाफ अपने से
तूने किस घड़ी ज़ालिम मेरी हमनवाई की
[ इख्तिलाफ = असहमति ]

तन्ज़-ओ-ताना-ओ-तोहमत सब हुनर है नासेह के
आपसे कोई पूछे हमने क्या बुराई की
[ नासेह = सलाहकार ]

फिर क़फ़स में शोर उठा कैदियों का और सय्याद
देखना उड़ा देगा फिर खबर रिहाई की
[ क़फ़स = जेल ] [ सय्याद = Hunter हंटर]

मेरे
सब्र की इन्तेहाँ क्या पूछते हो 'फ़राज़'
वो मेरे सामने रो रहा है किसी और के लिए

अपनी नाकामी का एक ये भी सबब है 'फ़राज़'
चीज़ जो मांगते है सबसे जुदा मांगते हैं

आप खुद ही अपनी अदाओं में ज़रा ग़ौर कीजिए
हम अर्ज़ करेंगे तो शिकायत होगी

अकेले तो हम पहले भी जी रहे थे 'फ़राज़'
क्यूँ तन्हाँ से हो गए हैं तेरे जाने के बाद

मेरे शिकवों पे उस ने हंस कर कहा 'फ़राज़'
किस ने की थी वफ़ा जो हम करते

13 Aug 2011

जाने क्यों शिक़स्त का अज़ाब लिए फिरता हूँ

जाने क्यों शिक़स्त का अज़ाब लिए फिरता हूँ
मैं क्या हूँ और क्या ख्वाब लिए फिरता हूँ

उसने एक बार किया था सवाल-ए-मोहब्बत
मैं हर लम्हा वफ़ा का जवाब लिए फिरता हूँ

उसने पूछा कब से नही सोए
मैं तब से रत-जगों का हिसाब लिए फिरता हूँ

उसकी ख्वाहिश थी के मेरी आँखों में पानी देखे
मैं उस वक़्त से आंसुओं का सैलाब लिए फिरता हूँ

अफ़सोस के फिर भी वो मेरी ना हुई "फ़राज़"
मैं जिस की आरज़ुओं की किताब लिए फिरता हूँ .

--अहमद फ़राज़

6 Aug 2011

अशआर

बिछड़ते वक़्त उसने कहा था न सवाल करना ,
न जवाब मिलेगा मुझे भूल जाना करार मिलेगा हम उस मुकाम पर थे …
न सवाल किया न जवाब मिला न भूल सके न करार मिला

एक अरसे बाद मिले तो मेरा नाम पूछ लिया
उसने बिछड़ते वक़्त जिसने कहा था तुम्हारी बहुत याद आएगी

25 Jul 2011

बेशर्म लड़की

तितली के पंखों से,

गुलाब की पंखुड़ियों,

मोरपंखी के सूखे पत्तों से

किताब सजाती है,

वह एक लड़की।

पर इसे पढ़ नहीं पायेगी वह।

उसे तो पढ़ना है

घर-आंगन, चूल्हे की राख,

बच्चों का गू-मूत,

पति का पौरुष (अत्याचार),

बताती है मां,

अपने अब तक के अनुभव से।

फिर भी नहीं छोड़ती

किताबों में छिपाना, रंगीन पत्तियां,

मन में उड़ाना, रंगीन तितलियां,

सपने सजाना,

बेशर्म लड़की।

देखती है सपने

सफेद घोड़े पर सवार राजकुमार के।

सोती रहती है

बियावान में बने,

अपने सपनों के महल में,

अकेले सदियों तक,

सोती सुन्दरी के सपने के साथ।

तब भी,

जब कराहती है

एक डिब्बा किरासिन

एक माचिस की तीली के डर से।

जली आत्मा, जला तन लेकर,

अपनों को छोड़ कर,

सपनों को तोड़ कर,

सदियों की नींद से

जाग नहीं पाती है,

बेशर्म लड़की।

खड़ी हैं चौराहों पर,

जांघों के बीच खुजातीं

बेशर्म आंखें,

बजातीं सीटियां, कसती फब्तियां।

नजरें झुकाकर ,

थोडा सटपटाकर,

स्कूल जाना क्यों,

पढ़ना-पढ़ाना क्यों,

छोड़ नहीं पाती है

बेशर्म लड़की।

आई जो गर्भ में,

खडे़ हो गये कितने सवाल।

क्या है, लड़का या लड़की?

लड़की ?

गर्भ रखना है क्या ?

जन्मने से पहले ही

चिमटियों से खींचकर नोंच ली जाती है,

बोटी-बोटी कर दिया जाता है शरीर।

खुश होती है मां,

अब नाराज नहीं होंगे ‘वो’

खुश होता है ‘बाप’

एक मुसीबत तो टली।

फिर उसी गर्भ में,

हत्यारी दुनियां में,

बार-बार आना क्यों

छोड़ नहीं पाती है

बेशर्म लड़की।

रचनाकार:
डॉ. अरविन्द दुबे

18 Jul 2011

बिखरे मोती

1)वो आएगी घर पर मेरे सुन कर मौत की खबर मेरी
यारो ज़रा कफन हटा देना
कम से कम दीदार तो होगा
मय्यत को मेरी देख के अगर रो दे तो उठा देना
अगर खामोश रहे तो चेहरा छुपा देना

हमसे अगर वो करती है मोहब्बत तो इजहार वो करेगी
अगर न करे इजहार तो ज़ालिम को धक्के मार के घर निकाल देना

2)बहुत चाह मगर उन्हें भुला न सके,
खयालों में किसी और को ला न सके.

उनको देख के आँसू तो पोंछ लिए,
पर किसी और को देख के मुस्कुरा न सके.


3)खा कर फरेब और दगा जमाने में रह गये
हम दोस्ती का फ़र्ज़ निभाने में रह गये
एक पल में दुनिया हमसे आगे निकल गई
हम दोस्तों से हाथ मिलाने में रह गये

4)जिक्र इतना किया तेरा कि तू बेवफा हो गया
नाम इतना लिया तेरा कि खुदा भी खफा हो गया
मुमकिन नहीं अब तो कि पीछे लौट जाये हम
मानते है गुनाह था,पर जो हो गया सो हो गया

मुदतें हो गयी देखे तुझको,पर दिल पे तेरा ही साया है
आँखों में आज तलक वो मंजर समाया है
काश आसा होता इतना यादो को मिटा पाना
जैसे तेरा नाम रेत पे लिख-लिख के मिटाया है

5)आशक़ी सब्रतलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ूने-जिगर होने तक ।
हमने माना, कि तग़ाफुल न करोगे, लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम, तुमको ख़बर होने तक ।

6)पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ
यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए..

7)सोचा था, इक ग़ज़ल लिखेंगे तुझे याद किये बगैर
ग़ज़ल तो दूर की बात है , एक मतला नहीं लिख पाए

15 Jul 2011

कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया

वो लोग बोहत खुश-किस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे

हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आ कर हमने
दोनों को अधूरा छोड दिया

फैज़ अहमद फैज़

14 Jul 2011

तेरी यादों को सीने से लगाया तो आंसू निकले

उनकी तस्वीर को सीने से लगा लेते है,
इस तरह जुदाई का गम मिटा लेते है,
किसी तरह ज़िक्र हो जाये उनका,
तो हंस कर भीगी पलकें झुका लेते है.


तेरी यादों को सीने से लगाया तो आंसू निकले ,

इस तरह से दिल को बहलाया तो आंसू निकले ,

तेरी महफ़िल तेरे जलवे तेरी बातों का हुनर ,

जब किसी ने आकर सुनाया तो आंसू निकले ,

एक जज्बा था तुम्हे पाने की खवाहिश थी ,

तुमने जब हमको भुलाया तो आंसू निकले ,

तुम हमें कहते थे चश्मे नूर हो मेरे ,

जब हमें आँखों से गिराया तो आंसू निकले ,

दर्द-ए-दिल की कहानी

दर्द-ए-दिल की कहानी भी वो खुब लिखता है


कही पर बेवफा तो कही मुझे मेहबूब लिखता है

कुछ तो रस्म-ए-वफा निभा रहा है वो

हर एक सफ-ए-कहानी मे वो मुझे मजमून लिखता है

लफ्ज़ो की जुस्तजू मेरे संग़ बीते लम्हो से लेता है

स्याही मेरे अश्क़ को बनाकर वो हर लम्हा लिखता है

कशिश क्यो ना हो उसकी दास्तान-ए-दर्द मे यारो

जब भी ज़िक्र खुद का आता है वो खुद को वफा लिखता है

तहरीरे झूठ की सजाई है आज उसने अपने चेहरे पर

खुद को दर्द की मिसाल और कही मजबूर लिखता है


मजमून=जिसपर कुछ कहा या लिखा जाय

4 Jun 2011

फितरत बदलती जिंदगी

मत देख कि कोई शख्श गुनाहगार कितना है.


यह देख कि तेरे साथ वफादार कितना है.

ये मत सोच कि उसे कुछ लोगों से नफ़रत भी है.

यह देख कि उसको तुझसे प्यार कितना है.


मत देख कि वो तनहा क्यूँ बैठता है इतना.


ये देख कि उसे तेरा इन्तिज़ार कितना है.


ये मत पूछ उसको तुझसे प्यार कितना है.


उसको ये बता कि वो तेरा हक़दार कितना है.

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हर मुश्किल इम्तिहान नहीं होती.


मोहब्बत खामोश रहती है, बेजुबान नहीं होती.


एक एक कदम पर फितरत बदलती है जिंदगी.


जब हमको मंजिलों की पहचान नहीं होती.

मै खुद को फरिश्ता नही कहता

दरिया तो है वो, जिस से किनारे छलक उठाये
बहते हुए पानी को मै दरिया नही कहता
गहराई जो दी तुने मेरे ज़ख्म ए जिगर को
मै इतना समुंद्र को भी गहरा नही कहता
किस किस की तम्मना मे करू प्यार को तक़सीम
हर शक़स को मै जान ए तम्मना नही कहता
करता हूँ मै, अपने गुनाहो पे बहुत नाज़
इंसान हूँ मै खुद को फरिश्ता नही कहता

हम जवाब क्या देते

पत्थर की है दुनियाँ जज़्बात नही समझती
दिल मे क्या है वो बात नही समझती
तन्हा तो चाँद भी है सितारो के बीच
मगर चाँद का दर्द बेवफा रात नही समझती
हम दर्द झेलने से नही डरते
पर उस दर्द के खत्म होने की कोई आस तो हो
दर्द चाहे कितना भी दर्दनाक हो
पर दर्द देने वाले को उसका एहसास तो हो
उनको अपने हाल का हिसाब क्या देते
सवाल सारे गलत थे हम जवाब क्या देते
वो तो लफ्ज़ो की हिफाज़त भी ना कर सके
फिर उनके हाथ मे ज़िन्दगी की पुरी किताब क्या देते

रस्म-ए-वफा

दर्द-ए-दिल की कहानी भी वो खुब लिखता है


कही पर बेवफा तो कही मुझे मेहबूब लिखता है

कुछ तो रस्म-ए-वफा निभा रहा है वो

हर एक सफ-ए-कहानी मे वो मुझे मजमून लिखता है

लफ्ज़ो की जुस्तजू मेरे संग़ बीते लम्हो से लेता है

स्याही मेरे अश्क़ को बनाकर वो हर लम्हा लिखता है

कशिश क्यो ना हो उसकी दास्तान-ए-दर्द मे यारो

जब भी ज़िक्र खुद का आता है वो खुद को वफा लिखता है

तहरीरे झूठ की सजाई है आज उसने अपने चेहरे पर

खुद को दर्द की मिसाल और कही मजबूर लिखता है

1 Jun 2011

ढूंढ़ता तन्हाइयों को इक खुले आकाश में|

ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|
देखता परछाइओं को,
मौत की तलाश में|

आसमां भी रो पड़ा,
ये सोच तनहा है सफ़र|
एक टक वो देखता,
आए कहीं कोई नज़र|
देरों तलक निहारता,
शायद किसी की आस में|
ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|

चाँद-तारे सब के सब,
जानते हर बात को|
देखा है सबने साथ ही,
आसमां की बरसात को|
भींगतें हैं वो सभी,
रह आसमां के पास में|
ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|

चातक को है क्या पड़ा?
स्वाति की इक बूंद का|
चकोर भी है बावड़ा,
चाँद की इक धुन्द का|
जाने क्यूँ परेशां हैं सब?
गुमनाम-से इक प्यास में|
ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|

बुझती चिराग अब,
जोर है तूफान का|
टूटती दिवार अब,
हर पक्के मकान|
पत्थरों में देख करुणा,
जाने जीतें हैं क्यूँ विश्वास में?
ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|

ऐ दिल तूँ सुन यूँ ना मचल,
ये असर है उनके साथ का|
वादा किया करतें हैं वो,
क्या भरोसा बात का?
तूँ गुम है इतना क्यूँ भला?
दो पल के एहसास में|
ढूंढ़ता तन्हाइयों को,
इक खुले आकाश में|

ज़िंदगी है छोटी, हर पल में ख़ुश रहो

ज़िंदगी है छोटी, हर पल में ख़ुश रहो...
Office मे ख़ुश रहो, घर में ख़ुश रहो...
आज पनीर नही है दाल में ही ख़ुश रहो...
आज gym जाने का समय नही, दो क़दम चल के ही ख़ुश रहो...
आज दोस्तो का साथ नही, TV देख के ही ख़ुश रहो...
घर जा नही सकते तो फ़ोन कर के ही ख़ुश रहो...
आज कोई नाराज़ है उसके इस अंदाज़ में भी ख़ुश रहो...
जिसे देख नही सकते उसकी आवाज़ में ही ख़ुश रहो...
जिसे पा नही सकते उसकी याद में ही ख़ुश रहो
Laptop ना मिला तो क्या, Desktop में ही ख़ुश रहो...
बीता हुआ कल जा चुका है उसकी मीठी यादें है उनमे ही ख़ुश रहो...
आने वाले पल का पता नही... सपनो में ही ख़ुश रहो...
हसते हसते ये पल बिताएँगे, आज में ही ख़ुश रहो
ज़िंदगी है छोटी, हर पल में ख़ुश रहो

2 Apr 2011

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत* का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम* न सही, फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है, तो ज़माने के लिए आ

एक उमर से हूँ लज्ज़त-ए-गिरया* से भी महरूम
ए राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
यह आखिरी शमाएं भी बुझाने के लिए आ


रंजिश = मनमुटाव, नाराज़ी
पिन्दार = अभिमान, गर्व, गुरूर / (कल्पना भी)
मरासिम = सम्बन्ध
लज्ज़त-ए-गिरिया = रोने या आंसुओं का आनंद
राहत-ए-जाँ = जाँ / जिंदगी को सुकून देने वाला

इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ

इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ
(क़बा=ड्रेस)

बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएँ

अहमद फ़राज़

31 Mar 2011

कभी चढ़ तो कभी उतर जाएँ

कभी चढ़ तो कभी उतर जाएँ
लहर बन कर मगर किधर जाएँ

इसलिए भी कुरेदा करते हैं
ज़ख्म दिल के कहीं ये भर न जाएँ

दिया है ज़ख्म अब न देना दवा
टुकड़े दिल के न सब बिखर जाएँ

लौट आयें हैं हम तेरे दिल से
आप भी बस अब अपने घर जाए

कौन हमको मानाने आएगा
आप ही रूठ कर अगर जाएँ

दिल "सागर" से लगाये ही रखना
भूल से भी न वो सुधर जाएँ

सीने में ज़ख़्म

सीने में ज़ख़्म उतारे चले गए
जो हमपे गुज़री गुज़रे चले गए

उम्र दराजी की दुआ मिली जब
दूर हमसे हमारे चले गए

वोह आएगा एक दिन मिलने हमसे
नाम उसका ही पुकारे चले गए

सर्द हवा का झोखा कुछ ऐसा चला
काफिला छोड़ बंजारे चले गए

कहाँ देखें वो रोशन चिराग "सागर"
मुद्दतें बीती वोह नज़ारे चले गए

1 Feb 2011

रिमझिम: ढेर सारा अँधेरा

रिमझिम: ढेर सारा अँधेरा: "खाली कमरों में हम दिन गुजारते थे काली स्याह रातों का भी वहीँ डेरा था जिस शख्स को उन कमरों में खो दिया बस, दीवारों के इलावा वही शख्स मेरा था..."

हर सुबह तेरा ख्याल आता है

मुद्दत हो गयी है तेरा दीदार किये
फिर भी हर शब तेरा चेहरा जगाता है
हर लम्हा तुझसे वाबस्ता है
हर सुबह तेरा ख्याल आता है

ये ज़िन्दगी रुक सी गयी है तेरे बिन
आईने अब भी तेरा अक्स दिखाता है
मेरे वजूद के हर पहलू में
आज तक तेरा साया झिलमिलाता है

न लौट कर आती है कभी उम्मीद मेरी
मगर दिल ना-मुक्कमल इंतज़ार कराता है
हर गोश में मेरे ख्वाब्गार के
सिर्फ तेरा सपना समाता है

कोई वादा नहीं किया कभी तूने, लेकिन
किसी यकीं पे अब भी वक़्त आस लगाता है
सद् कोशिशों के बावजूद जाने क्यों
भूल कर भी हर रोज़ तू याद आता है

फडफडाकर रखे हें

परिंदों ने पर फडफडाकर रखे हें ।
आसमां पर निगाहें जमा कर रखे हें ।
मिले जख्म जितने भी दिल को अभी तक ,
सीने से अपने लगा कर रखे हें ।
कहीं जल न जाए ये दामन वफ़ा का ,
दिये आंसुओं के बुझाकर रखे हें ।
खुदा जानता है मिरे दिल की हालत ,
कई राज जिसने छुपाकर रखे हें ।
ग़मों ने सताया ,रुलाया हमेशा ,
मगर मैंने रिश्ते बनाकर रखे हें ।
नजर लग न जाए कहीं इस जहां की ,
मुहब्बत के किस्से छुपाकर रखे हें

30 Jan 2011

कभी उनकी याद आती है कभी उनके ख्व़ाब आते हैं,

कभी उनकी याद आती है कभी उनके ख्व़ाब आते हैं,
मुझे सताने के सलीके तो उन्हें बेहिसाब आते हैं।

कयामत देखनी हो गर चले जाना उस महफिल में,
सुना है उस महफिल में वो बेनकाब आते हैं।

कई सदियों में आती है कोई सूरत हसीं इतनी,
हुस्न पर हर रोज कहां ऐसे श़बाब आते हैं।

रौशनी के वास्ते तो उनका नूर ही काफी है,
उनके दीदार को आफ़ताब और माहताब आते हैं।

शख़्सियत

अल्फ़ाज़ों मैं वो दम कहाँ जो बया करे शख़्सियत हमारी,
रूबरू होना है तो आगोश मैं आना होगा ।

यूँ देखने भर से नशा नहीं होता जान लो साकी,
हम इक ज़ाम हैं हमें होंठो से लगाना होगा ......

हमारी आह से पानी मे भी अंगारे दहक जाते हैं ;
हमसे मिलकर मुर्दों के भी दिल धड़क जाते हैं ..

गुस्ताख़ी मत करना हमसे दिल लगाने की साकी ;
हमारी नज़रों से टकराकर मय के प्याले चटक जाते हैं॥

25 Jan 2011

मैं पट्रीयों की तरहा ज़मी पर पड़ा रहा
सीने से गम गुज़रते रहे रेल की तरह

--मुनव्वर राणा

नादान है वो कितना कुछ समझता ही नही है फ़राज
सीने से लगा के पूछता है कि धडकन तेज क्यो है ?

--अहमद फराज़

बिछड़ना उसकी ख्वाहिश थी न मेरी आरजू लेकिन
जरा सी हिचक ने...ये कारनामा कराया है
--अज्ञात

अब देखते हैं हम दोनों कैसे जुदा हो पायेंगे
तुम मुकद्दर का लिखा कहते हो हम अपनी दुआ को आजमाएंगे
--अज्ञात


मौत भी कम खूबसूरत तो नहीं होगी
जो इसको देखता है जिंदगानी छोड़ जाता है
--अज्ञात


कर रहा था गम-ए-जहां का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आये
--फैज अहमद फैज


कईं दर्दों को अब दिल में जगह मिल जायेगी
वो गया कुछ जगह खाली इतनी छोड़ कर
--अज्ञात

माना के हर एक की जिंदगी में गम आते हैं मगर
जितने गम मुझे मिले उतनी मेरी उम्र न थी.
--अज्ञात


अफवाह किसी ने फैलाई थी तेरे शहर में होने की,
मैं हर एक दर पर मुकद्दर आज़माता रहा..
--अज्ञात


कभी चाहत भरे दिन रात अच्छे नही लगते
कभी अच्छे तालुकात भी अच्छे नही लगते
कभी दिल चाहता है उसकी मूठी में धडकना
कभी हाथो में उसके हाथ भी अच्छे नही लगते
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मेरी दास्तान-ए-हसरत वो सुना सुना के रोये
मेरे आजमाने वाले मुझे आजमा के रोये
कोई ऐसा अहल-ए-दिल हो के फ़साना-ए-मोहब्बत
मैं उसे सुना के रोऊँ, वो मुझे सुना के रोये
मेरे पास से गुजार कर मेरा हाल तक न पूछा
मैं ये कैसे मान जाऊं के वो दूर जा के रोये
--अहमद फराज़


तेरे क़रीब वो देखा नहीं गया
वो ले गया तुझे,रोका नहीं गया
यादें उभर गईं,बातें निखर गईं
मैं रात भर जगा ,सोया नहीं गया
तुझसे बिछुड़ गए ,फिर भी जुड़े रहे
तेरे ख़याल को तोडा नहीं गया
कितने बरस हुए , तेरी खबर नहीं
तेरे सिवाय कुछ ,सोचा नहीं गया
हर मोड़ पर मिले ,कितने हँसीन रंग
फिर भी कभी ये दिल, मोड़ा नहीं गया
कुछ साल एक दम, आकर खड़े हुए
ख़त देख तो लिया ,खोला नहीं गया
आसान था जिसे , कहना बहुत तुझे
वो ढाई लफ्ज़ भी , बोला नहीं गया
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खैरात मैं मिली ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती ..
मैं अपने ग़ममें रहता हूँ नवाबो की तरह !!

3 Jan 2011

बहुत पानी बरसता है

बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है

यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है

चलो माना कि शहनाई मोहब्बत की निशानी है
मगर वो शख्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है

बढ़े बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं ?
कुएं में छुप के क्यों आखिर ये नेकी बैठ जाती है ?

नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है
समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है

सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है

वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मोहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है
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