15 Mar 2010

आँख का आँसू

आँख का आँसू ढ़लकता देखकर
जी तड़प कर के हमारा रह गया
क्या गया मोती किसी का है बिखर
या हुआ पैदा रतन कोई नया ?

ओस की बूँदे कमल से है कहीं
या उगलती बूँद है दो मछलियाँ
या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी
खेलती हैं खंजनों की लडकियाँ ।

या जिगर पर जो फफोला था पड़ा
फूट कर के वह अचानक बह गया
हाय था अरमान, जो इतना बड़ा
आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया ।

पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ
यों किसी का है निराला पन भया
दर्द से मेरे कलेजे का लहू
देखता हूँ आज पानी बन गया ।

प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी
वह नहीं इस को सका कोई पिला
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी
वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला ।

ठीक कर लो जांच लो धोखा न हो
वह समझते हैं सफर करना इसे
आँख के आँसू निकल करके कहो
चाहते हो प्यार जतलाना किसे ?

आँख के आँसू समझ लो बात यह
आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े
क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह
जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े ।

हो गया कैसा निराला यह सितम
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया
यों किसी का है नहीं खोते भरम
आँसुओं, तुमने कहो यह क्या किया ?

- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

13 Mar 2010

तो फिर सच क्या है...?

शरीर, आत्मा और चेतना - इनमें से रिश्ता, मोह या लगाव है तो आख़िर किससे? आत्मा अमर है मगर अदृश्य भी है । माना कि परमात्मा कुछ है और आत्मा परम से नश्वर शरीर और फिर विराट में विलीन होने की प्रक्रिया में भटकाव की ऐसी कड़ी हो सकती है जो जीवन और मृत्यु के यथार्थ का अहसास चैतन्य शरीर याकि शरीरों को कराती रहती है मगर फिर ये चेतना शरीर और आत्मा के बीच की कौन सी स्थिति है? शारीरिक सौन्दर्य आकर्षित करता है मगर चेतनाहीन शरीर निरर्थक है । मृत्यु शारीरिक चेतना के समाप्त हो जाने को कहा जाएगा अथवा शरीर के निष्क्रिय हो जाने को याकि आत्महीनता की स्थिति को। हम किससे जुड़े हैं शरीर से, आत्मा से, चेतना से याकि इन तीनों की एक साथ मौजूदगी से। चेतनाहीन शरीर भूत है उसे मिट्टी कहा जाता है और शीघ्रातिशीघ्र मिट्टी में विलीन करने की जिम्मेदारी अन्य चैतन्य शरीरों द्वारा महसूस की जाती है। मृत शरीर से तत्काल रिश्ता तोड़ लिया जाता है। आत्मा की शान्ति के लिए जाप , तप, साधना सभी कुछ किए जाते हैं, चैतन्य शरीर की स्मृतियाँ बार-बार सपने की तरह मन-मस्तिष्क में उभरती हैं । शायद यह चेतना ही सर्वोपरि है जो शरीर को आत्मा और परमात्मा की अनुभूति के सहारे जीने की लालसा में लपेटे रहती है। यदि जन्म लेने का मतलब एक चैतन्य शरीर के निश्चेत हो जाने की मंजिल तक पहुँचने को कहा जाता है तो फिर भूख से मर जाने याकि अत्यधिक खाकर मर जाने में अंतर क्या है? शरीर की चेतना बनाए रखने के लिए हम क्या कुछ नहीं करते मगर अंतत: नियति तो शरीर का निश्चेत हो जाना ही है। मोह-माया में बंधकर याकि मुक्त होकर किसी भी तरह मिट्टी में मिल जाने के सिवाय किसी की भी अंतिम परिणति क्या है? घर में रहकर या बेघर होकर, सौ साल जीकर या चालीस-पचास साल जीकर, बेइमानी से करोड़ों इकट्ठा कर या ईमानदारी से तिल-तिल जलकर, अपराधी बनकर या महात्मा-साधू-सन्यासी बनकर, कुछ भी करकर या बिना कुछ किए अंत तो मिट्टी से मिट्टी के मिलन के रूप में ही होना है। समाज, नियम, कायदे-क़ानून, जनता-सरकार , अधिकार-कर्तव्य सब सबके इसी एक लक्ष्य तक पहुँचने के लिए साधन भर नहीं हैं तो क्या हैं? शायद इस तरह के चिंतन याकि चेतना के इस चक्कर को ही वैराग्य का नाम दिया जाता है। यदि यह सब झूठ है तो फिर सच क्या है? सुख क्या है, दुःख क्या है? शरीर के दुखी या सुखी होने से क्या फर्क पड़ता है ? मिट्टी तो मिट्टी है..फिर मुक्ति क्या है ? यह मुक्ति किसकी है -किससे है... और किसके लिए है?

दूध में दरार पड़ गई-अटल बिहारी वाजपेयी

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।


खेतों में बारूदी गंध,
टुट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्याथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।


अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

मैंने जन्म नहीं मांगा था! -अटल बिहारी वाजपेयी

मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करुँगा।

जाने कितनी बार जिया हूँ,
जाने कितनी बार मरा हूँ।
जन्म मरण के फेरे से मैं,
इतना पहले नहीं डरा हूँ।

अन्तहीन अंधियार ज्योति की,
कब तक और तलाश करूँगा।
मैंने जन्म नहीं माँगा था,
किन्तु मरण की मांग करूँगा।

बचपन, यौवन और बुढ़ापा,
कुछ दशकों में ख़त्म कहानी।
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना,
यह मजबूरी या मनमानी?

पूर्व जन्म के पूर्व बसी—
दुनिया का द्वारचार करूँगा।
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करूँगा।

ऊँचाई-अटल बिहारी वाजपेयी

ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफन की तरह सफेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिल-खिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।
ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनन्दन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बंटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।जरूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूंट सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई कांटा न चुभे,
कोई कलि न खिले। न वसंत हो, न पतझड़,
हों सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
गैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
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