4 Jun 2011

रस्म-ए-वफा

दर्द-ए-दिल की कहानी भी वो खुब लिखता है


कही पर बेवफा तो कही मुझे मेहबूब लिखता है

कुछ तो रस्म-ए-वफा निभा रहा है वो

हर एक सफ-ए-कहानी मे वो मुझे मजमून लिखता है

लफ्ज़ो की जुस्तजू मेरे संग़ बीते लम्हो से लेता है

स्याही मेरे अश्क़ को बनाकर वो हर लम्हा लिखता है

कशिश क्यो ना हो उसकी दास्तान-ए-दर्द मे यारो

जब भी ज़िक्र खुद का आता है वो खुद को वफा लिखता है

तहरीरे झूठ की सजाई है आज उसने अपने चेहरे पर

खुद को दर्द की मिसाल और कही मजबूर लिखता है

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