8 Sept 2010

हजारों ख्वाहिशें ऐसी..मिर्जा गालिब

हजारों ख्वाहिशें ऐसी

हजारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बोहत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले

दरे क्यों मेरा कातिल? क्या रहेगा उस की गर्दन पर?
वोह खून, जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूँ दम-बा-दम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहोत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भरम खुल जाए जालिम! तेरी कामत की दराजी का
अगर इस तरहे पर पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले

मगर लिखवाये कोई उसको ख़त, तो हम से लिखवाये
हुई सुबह, और घर से कान पर रख कर कलम निकले

हुई इस दौर में मंसूब मुझे से बाद आशामी
फिर आया वोह ज़माना, जो जहाँ में जाम-ऐ-जाम निकले

हुई जिन से तवक्का खस्तगी की दाद पाने की
वोह हम से भी ज्यादा खस्ता ऐ तेघ ऐ सितम निकले

मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले

ज़रा कर जोर सीने पर की तीर-ऐ-पुरसितम निकलेजो
वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

खुदा के वास्ते परदा न काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो यान भी वही काफिर सनम निकले

कहाँ मैखाने का दरवाजा घलिब और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वोह जाता था के हम निकले

हजारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बोहत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले...

...मिर्जा गालिब
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