मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं
कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर
ऎसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊं
सोचता हूं तो छलक उठती हैं मेरी आँखें
तेरे बारे में न सॊचूं तो अकेला हो जाऊं
चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं है लेकिन
क्या ज़ुरूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊं
बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं
शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊं
शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती
मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊं
"मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊं
ReplyDeleteमाँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं
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शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती
मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊं"
बहुत सुंदर
आपको पढकर बहुत अच्छा लगा .. इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका सवागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteशानदार पेशकश।
ReplyDeleteडॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित हिंदी पाक्षिक)एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
0141-2222225 (सायं 7 सम 8 बजे)
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