25 Jul 2011

बेशर्म लड़की

तितली के पंखों से,

गुलाब की पंखुड़ियों,

मोरपंखी के सूखे पत्तों से

किताब सजाती है,

वह एक लड़की।

पर इसे पढ़ नहीं पायेगी वह।

उसे तो पढ़ना है

घर-आंगन, चूल्हे की राख,

बच्चों का गू-मूत,

पति का पौरुष (अत्याचार),

बताती है मां,

अपने अब तक के अनुभव से।

फिर भी नहीं छोड़ती

किताबों में छिपाना, रंगीन पत्तियां,

मन में उड़ाना, रंगीन तितलियां,

सपने सजाना,

बेशर्म लड़की।

देखती है सपने

सफेद घोड़े पर सवार राजकुमार के।

सोती रहती है

बियावान में बने,

अपने सपनों के महल में,

अकेले सदियों तक,

सोती सुन्दरी के सपने के साथ।

तब भी,

जब कराहती है

एक डिब्बा किरासिन

एक माचिस की तीली के डर से।

जली आत्मा, जला तन लेकर,

अपनों को छोड़ कर,

सपनों को तोड़ कर,

सदियों की नींद से

जाग नहीं पाती है,

बेशर्म लड़की।

खड़ी हैं चौराहों पर,

जांघों के बीच खुजातीं

बेशर्म आंखें,

बजातीं सीटियां, कसती फब्तियां।

नजरें झुकाकर ,

थोडा सटपटाकर,

स्कूल जाना क्यों,

पढ़ना-पढ़ाना क्यों,

छोड़ नहीं पाती है

बेशर्म लड़की।

आई जो गर्भ में,

खडे़ हो गये कितने सवाल।

क्या है, लड़का या लड़की?

लड़की ?

गर्भ रखना है क्या ?

जन्मने से पहले ही

चिमटियों से खींचकर नोंच ली जाती है,

बोटी-बोटी कर दिया जाता है शरीर।

खुश होती है मां,

अब नाराज नहीं होंगे ‘वो’

खुश होता है ‘बाप’

एक मुसीबत तो टली।

फिर उसी गर्भ में,

हत्यारी दुनियां में,

बार-बार आना क्यों

छोड़ नहीं पाती है

बेशर्म लड़की।

रचनाकार:
डॉ. अरविन्द दुबे

18 Jul 2011

बिखरे मोती

1)वो आएगी घर पर मेरे सुन कर मौत की खबर मेरी
यारो ज़रा कफन हटा देना
कम से कम दीदार तो होगा
मय्यत को मेरी देख के अगर रो दे तो उठा देना
अगर खामोश रहे तो चेहरा छुपा देना

हमसे अगर वो करती है मोहब्बत तो इजहार वो करेगी
अगर न करे इजहार तो ज़ालिम को धक्के मार के घर निकाल देना

2)बहुत चाह मगर उन्हें भुला न सके,
खयालों में किसी और को ला न सके.

उनको देख के आँसू तो पोंछ लिए,
पर किसी और को देख के मुस्कुरा न सके.


3)खा कर फरेब और दगा जमाने में रह गये
हम दोस्ती का फ़र्ज़ निभाने में रह गये
एक पल में दुनिया हमसे आगे निकल गई
हम दोस्तों से हाथ मिलाने में रह गये

4)जिक्र इतना किया तेरा कि तू बेवफा हो गया
नाम इतना लिया तेरा कि खुदा भी खफा हो गया
मुमकिन नहीं अब तो कि पीछे लौट जाये हम
मानते है गुनाह था,पर जो हो गया सो हो गया

मुदतें हो गयी देखे तुझको,पर दिल पे तेरा ही साया है
आँखों में आज तलक वो मंजर समाया है
काश आसा होता इतना यादो को मिटा पाना
जैसे तेरा नाम रेत पे लिख-लिख के मिटाया है

5)आशक़ी सब्रतलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ूने-जिगर होने तक ।
हमने माना, कि तग़ाफुल न करोगे, लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम, तुमको ख़बर होने तक ।

6)पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ
यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए..

7)सोचा था, इक ग़ज़ल लिखेंगे तुझे याद किये बगैर
ग़ज़ल तो दूर की बात है , एक मतला नहीं लिख पाए

15 Jul 2011

कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया

वो लोग बोहत खुश-किस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे

हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आ कर हमने
दोनों को अधूरा छोड दिया

फैज़ अहमद फैज़

14 Jul 2011

तेरी यादों को सीने से लगाया तो आंसू निकले

उनकी तस्वीर को सीने से लगा लेते है,
इस तरह जुदाई का गम मिटा लेते है,
किसी तरह ज़िक्र हो जाये उनका,
तो हंस कर भीगी पलकें झुका लेते है.


तेरी यादों को सीने से लगाया तो आंसू निकले ,

इस तरह से दिल को बहलाया तो आंसू निकले ,

तेरी महफ़िल तेरे जलवे तेरी बातों का हुनर ,

जब किसी ने आकर सुनाया तो आंसू निकले ,

एक जज्बा था तुम्हे पाने की खवाहिश थी ,

तुमने जब हमको भुलाया तो आंसू निकले ,

तुम हमें कहते थे चश्मे नूर हो मेरे ,

जब हमें आँखों से गिराया तो आंसू निकले ,

दर्द-ए-दिल की कहानी

दर्द-ए-दिल की कहानी भी वो खुब लिखता है


कही पर बेवफा तो कही मुझे मेहबूब लिखता है

कुछ तो रस्म-ए-वफा निभा रहा है वो

हर एक सफ-ए-कहानी मे वो मुझे मजमून लिखता है

लफ्ज़ो की जुस्तजू मेरे संग़ बीते लम्हो से लेता है

स्याही मेरे अश्क़ को बनाकर वो हर लम्हा लिखता है

कशिश क्यो ना हो उसकी दास्तान-ए-दर्द मे यारो

जब भी ज़िक्र खुद का आता है वो खुद को वफा लिखता है

तहरीरे झूठ की सजाई है आज उसने अपने चेहरे पर

खुद को दर्द की मिसाल और कही मजबूर लिखता है


मजमून=जिसपर कुछ कहा या लिखा जाय
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