1 Feb 2015

हम भी चोट खाए है


एक मुख्त्शर* इश्क में हम भी चोट खाए है
राह-ए-मोहब्बत में हम भी किसी के आजमायें हुए है
चोट खाकर कई जख्मो को सहे है हम
कहते जिसे बेवफाई ,उन घावों को हम भी सहलायें हुए है
सीने  में दर्द को सहकर इस कदर बे-दर्द हुए है हम
वक़्त को मरहम बनाकर उन ज़ख्मों को हम भी छुपायें हुयें है 
काँटों की कलियों को , सीने से लगायें है हम
लहू के रंग को फूलों के रंग में हम भी समायें हुए है
हमारी वफाओं के बदले ज़फायें *लिए है हम
ज़िन्दगी के दरख्तों पे अब भी यादों के फूल कुम्हलाएँ हुयें है
जिंदगी के अज़ाब* को ज़ेहन में लिए है हम
अनदेखे ख्वाबो के ताबीर* भी अब रंग लाये हुए है
दियार-ए- गम* में तबस्सुम*लिए है हम
तीरगी* के साये में चिराग -ए-दिल जलाये हुए है 
*मुख्तशर - लघु ,
 अजाब - मुसीबत , 
जफ़ायें - निष्ठुरतायें, 
ताबीर - स्वप्नफल , 
दीये-ए-गम - दुःख का नगर 
तबस्सुम - मुस्कराहट ,
 तीरगी - अँधेरा 

1 comment:

  1. मैं तो यादों के चरागों को जलाने में रहा
    दिल कि दहलीज़ को अश्कों से सजाने मे रहा
    मुड़ गए वो तो सिक्को की खनक सुनकर
    मैं गरीबी की लकीरों को मिटाने में रहा

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