एक मुख्त्शर* इश्क में हम भी चोट खाए है
राह-ए-मोहब्बत में हम भी किसी के आजमायें हुए है
चोट खाकर कई जख्मो को सहे है हम
कहते जिसे बेवफाई ,उन घावों को हम भी सहलायें हुए है
सीने में दर्द को सहकर इस कदर बे-दर्द हुए है हम कहते जिसे बेवफाई ,उन घावों को हम भी सहलायें हुए है
वक़्त को मरहम बनाकर उन ज़ख्मों को हम भी छुपायें हुयें है
काँटों की कलियों को , सीने से लगायें है हम
लहू के रंग को फूलों के रंग में हम भी समायें हुए है
हमारी वफाओं के बदले ज़फायें *लिए है हम
ज़िन्दगी के दरख्तों पे अब भी यादों के फूल कुम्हलाएँ हुयें है
जिंदगी के अज़ाब* को ज़ेहन में लिए है हम
अनदेखे ख्वाबो के ताबीर* भी अब रंग लाये हुए है
दियार-ए- गम* में तबस्सुम*लिए है हम
तीरगी* के साये में चिराग -ए-दिल जलाये हुए है
*मुख्तशर - लघु ,
अजाब - मुसीबत ,
जफ़ायें - निष्ठुरतायें,
ताबीर - स्वप्नफल ,
दीये-ए-गम - दुःख का नगर
तबस्सुम - मुस्कराहट ,
तीरगी - अँधेरा
मैं तो यादों के चरागों को जलाने में रहा
ReplyDeleteदिल कि दहलीज़ को अश्कों से सजाने मे रहा
मुड़ गए वो तो सिक्को की खनक सुनकर
मैं गरीबी की लकीरों को मिटाने में रहा