9 Oct 2011

ज़मीन तेरी ख़ुदा मोतियों से नम कर दे

सँवार नोक पलक अबरूओं में ख़म कर दे
गिरे पड़े हुए लफ्ज़ों को मोहतरम कर दे

ग़ुरूर उस पे बहुत सजता है मगर कह दो
इसी में उसका भला है ग़ुरूर कम कर दे

यहाँ लिबास, की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे

चमकने वाली है तहरीर मेरी क़िस्मत की
कोई चिराग़ की लौ को ज़रा सा कम कर दे

किसी ने चूम के आँखों को ये दुआ दी थी
ज़मीन तेरी ख़ुदा मोतियों से नम कर दे

बशीर बद्र

फिर एक नयी चिता जला रहा हू

फिर एक नयी चिता जला रहा हू

जिस्म सीली लकड़ी जैसे सुलग रहा है
अपनी जली रूह की राख उड़ा कर
रुख हवाओ का दिखा रहा हू

फिर एक नयी चिता जला रहा हू



आज कुछ खुवाब बोए है कागज़ पर
कोशिश है नज्मो को बा - तरतीब करने की
किये जा रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू


कुछ रह गया जो साथ न गया तुम्हारे
दिल की दराजों को फिर से खंगाल कर
आज वोह सामान निकाल रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू



कुछ लम्हे टंगे है मेरे कमरे की दीवार पर
वक़्त की धूल सी जम गई है उन पर
उन्हे उतार रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू



थोड़ी सी खताए रखी है अलमारी के ऊपर
सजाए पता नहीं कब तक आयेगी
एक ज़माने से इंतजार कर रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू

आदते भी अजीब होती है

आदते भी अजीब होती है

तुम्हारी आदत
चूडिया पहनना
फिर बिना वज़ह उन्हे तोड़ देना
मेरी आदत यह कहना
चूडिया पहनती क्यों हो
अगर तोडनी ही है तो
आदते भी अजीब होती है....
............

समंदर किनारे रेत पर
कभी कभी बैठ जाता हु

सूरज समंदर के उस पर डूबता है
में इस पर तुम्हारे ख्यालो में डूब जाता हु
फर्क सिर्फ इतना है की तुम साथ नहीं होती
आदते भी अजीब होती है....
.............

ऑफिस से निकलता हु किसे काम के लिए
मेरे पैर मुझे अपने आप ही
तुम्हारे गली में ला खड़ा कर देते है
आदते भी अजीब होती है....
.............

मेरी गली में वोह खट्टे बेर वाला
अब भी आ जाता है
में फ़क़त उसे अब भी आवाज़ दे देता हु
पर बेर तो में खाता ही नहीं
आदते भी अजीब होती है....
.............

आज फिर होली का त्योंहार आया
कितनी शरारत करती थी तुम होली के दिन
सुबह सुबह मेरे गालो पर रंग लगा दिया कर देती थी तुम
जब से तुम गई हो ज़िन्दगी के सारे रंग
चले गए है तुम्हारे साथ
आदते भी अजीब होती है....
.............

जब हम पहली बार ऊटी गए थे
तुमने मेरे लिए जो एक घडी खरीदी थी
वोह आज भी अपने वक़्त पर पहरा दे रही है
मेरे दिल आज भी अपने पहरे पर मुस्तैद है
आदते भी अजीब होती है....
.............


में अब भी कार की चाबी जेब में रख कर भूल जाता हु
और पूरे घर में तलाश करता रहता हु
किसे काम से जेब में हाथ डालता हु तो वोह मिल जाती है
और फिर जोर से हंसता हु
पर अब तुम साथ नहीं होती हो
हसी गायब हो जाती है
आदते भी अजीब होती है....
.............

तुम्हारे जाने के बाद
कई दिनों तक बिस्तर ठीक नहीं किया मैंने
तुम्हारी तरफ की चादर में जो सिलवट पड़ी है
औन्धै मुह पड़ा रहता हु सारा दिन उसमे
आदते भी अजीब होती है....
.............

तुम्हारे आवाज़ की आदत सी हो गई है मुझे
जीने के लिए कुछ सांसे कम लगती है तो
टेप रेकॉर्डर में टेप की हुई तुम्हारी आवाज़
कानो में उतार लेता हु
आदते भी अजीब होती है....
.............

गिल्हेरिया अब भी आ जाती है
आँगन में नल के चबूतरे पर
मटर के दाने खाने के लिए
रोज़ खिलाता हु में उन्हे मगर
शक की निगाह से देखती है मुझे बहुत
वोह तुम्हारे हाथो का मज़ा खूब पहचानती होंगी
आदते भी अजीब होती है....
.............

इतेफाक

बरसों के बाद देखा इक शख्स दिलरुबा सा
अभी जहन में नहीं है पर नाम था भला सा

अबरू
खिंचे खिंचे से आखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहज़ा थका थका सा

अलफाज़ थे के जुगनु आवाज़ के सफ़र में

बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा


ख़्वाबों में ख़्वाब उसके यादों में याद उसकी
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा

पहले भी लोग आये कितने ही ज़िंदगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा

अगली मुहब्बत्तों ने वो नामुरादियाँ दीं
ताज़ा रफाक़तों से दिल था डरा डरा सा

कुछ ये के मुद्द्तों से हम भी नहीं थे रोये
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब का दिलासा

फिर यूं हुआ के सावन आंखो में आ बसे थे
फिर यूं हुआ के जैसे दिल भी था आबला सा

अब सच कहें तो यारों हम को खबर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत इक वाक़या ज़रा सा

तेवर थे बेरूखी के अंदाज़ दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा

हम दश्त थे के दरिया, हम ज़हर थे के अमृत
नाहक था ज़ोनुम हम को जब वो नहीं था प्यासा

हम ने भी उसको देखा कल शाम इत्तेफाक़न
अपना भी हाल है अब लोगों 'फराज़' का सा
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