यांदे संभाली है इस दिल में... सुना इस दुनिया में सब बिकता है... अफसोस मुझे इनका कोई का खरीददार न मिला
13 Mar 2010
तो फिर सच क्या है...?
शरीर, आत्मा और चेतना - इनमें से रिश्ता, मोह या लगाव है तो आख़िर किससे? आत्मा अमर है मगर अदृश्य भी है । माना कि परमात्मा कुछ है और आत्मा परम से नश्वर शरीर और फिर विराट में विलीन होने की प्रक्रिया में भटकाव की ऐसी कड़ी हो सकती है जो जीवन और मृत्यु के यथार्थ का अहसास चैतन्य शरीर याकि शरीरों को कराती रहती है मगर फिर ये चेतना शरीर और आत्मा के बीच की कौन सी स्थिति है? शारीरिक सौन्दर्य आकर्षित करता है मगर चेतनाहीन शरीर निरर्थक है । मृत्यु शारीरिक चेतना के समाप्त हो जाने को कहा जाएगा अथवा शरीर के निष्क्रिय हो जाने को याकि आत्महीनता की स्थिति को। हम किससे जुड़े हैं शरीर से, आत्मा से, चेतना से याकि इन तीनों की एक साथ मौजूदगी से। चेतनाहीन शरीर भूत है उसे मिट्टी कहा जाता है और शीघ्रातिशीघ्र मिट्टी में विलीन करने की जिम्मेदारी अन्य चैतन्य शरीरों द्वारा महसूस की जाती है। मृत शरीर से तत्काल रिश्ता तोड़ लिया जाता है। आत्मा की शान्ति के लिए जाप , तप, साधना सभी कुछ किए जाते हैं, चैतन्य शरीर की स्मृतियाँ बार-बार सपने की तरह मन-मस्तिष्क में उभरती हैं । शायद यह चेतना ही सर्वोपरि है जो शरीर को आत्मा और परमात्मा की अनुभूति के सहारे जीने की लालसा में लपेटे रहती है। यदि जन्म लेने का मतलब एक चैतन्य शरीर के निश्चेत हो जाने की मंजिल तक पहुँचने को कहा जाता है तो फिर भूख से मर जाने याकि अत्यधिक खाकर मर जाने में अंतर क्या है? शरीर की चेतना बनाए रखने के लिए हम क्या कुछ नहीं करते मगर अंतत: नियति तो शरीर का निश्चेत हो जाना ही है। मोह-माया में बंधकर याकि मुक्त होकर किसी भी तरह मिट्टी में मिल जाने के सिवाय किसी की भी अंतिम परिणति क्या है? घर में रहकर या बेघर होकर, सौ साल जीकर या चालीस-पचास साल जीकर, बेइमानी से करोड़ों इकट्ठा कर या ईमानदारी से तिल-तिल जलकर, अपराधी बनकर या महात्मा-साधू-सन्यासी बनकर, कुछ भी करकर या बिना कुछ किए अंत तो मिट्टी से मिट्टी के मिलन के रूप में ही होना है। समाज, नियम, कायदे-क़ानून, जनता-सरकार , अधिकार-कर्तव्य सब सबके इसी एक लक्ष्य तक पहुँचने के लिए साधन भर नहीं हैं तो क्या हैं? शायद इस तरह के चिंतन याकि चेतना के इस चक्कर को ही वैराग्य का नाम दिया जाता है। यदि यह सब झूठ है तो फिर सच क्या है? सुख क्या है, दुःख क्या है? शरीर के दुखी या सुखी होने से क्या फर्क पड़ता है ? मिट्टी तो मिट्टी है..फिर मुक्ति क्या है ? यह मुक्ति किसकी है -किससे है... और किसके लिए है?
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