28 Jul 2013

लुत्फ़ हम को आता है अब फ़रेब खाने में / आलम खुर्शीद

लुत्फ़ हम को आता है अब फ़रेब खाने में
आज़माए लोगों को रोज़ आज़माने में

दो घड़ी के साथी को हमसफ़र समझते हैं
किस क़दर पुराने हैं , हम नए ज़माने में

एहतियात रखने की कोई हद भी होती है
भेद हम ने खोले हैं , भेद को छुपाने में

तेरे पास आने में आधी उम्र गुजरी है
आधी उम्र गुज़रेगी तुझ से दूर जाने में

ज़िन्दगी तमाशा है और इस तमाशे में
खेल हम बिगाड़ेंगे , खेल को बनाने में

कारवां को उनका भी कुछ ख्याल आता है
जो सफ़र में पिछड़े हैं , रास्ता बनाने में

हमेशा दिल में रहता है कभी गोया नहीं जाता

हमेशा दिल में रहता है, कभी गोया (बताया) नहीं जाता
जिसे पाया नहीं जाता, उसे खोया नहीं जाता

कुछ ऐसे ज़ख्म हैं जिनको सभी शादाब(हराभरा) रखते हैं
कुछ ऐसे दाग़ हैं जिनको कभी धोया नहीं जाता

बहुत हँसने कि आदत का यही अंजाम होता है
कि हम रोना भी चाहें तो कभी रोया नहीं जाता

अजब सी गूँज उठती है दरो-दीवार से हरदम
ये उजड़े ख़्वाब का घर है यहाँ सोया नहीं जाता

ज़रा सोचो ये दुनिया किस क़दर बेरंग हो जाती
अगर आँखों में कोई ख़्वाब ही बोया नहीं जाता

न जाने अब मुहब्बत पर मुसीबत क्या पड़ी आलम
कि अहले दिल से दिल का बोझ भी ढोया नहीं जाता


 ---आलम खुर्शीद
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